Class 10th Civics Chapter 1 Notes In Hindi || नागरिक शास्त्र Chapter 1 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

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Civics (नागरिक शास्त्र)

Class 10th         Chapter 1

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

Full Chapter Explanation

 

★ लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद
लोकतंत्र शासन व्यवस्था में लोग ही शासन के केंद्र बिन्दु होता है। लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें लोगों के लिए एवं लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है। शासन में लोक प्रतिनिधि लोगों के हित का तथा उनके इच्छा का सर्वोपरि महत्व देना चाहते हैं यही कारण है। कि शासन के लोकतांत्रिक व्यवहार समाज में उभरते द्वन्द्व से प्रभावित होता है।

 

★ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन का स्वरूप
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन के कारण विभिन्न स्वरूप है। और इस भेदभाव का विरोध अलग-अलग तरीके से भी होते हैं। क्षेत्रीय भावना के आधार पर, समाजिक बटवारा के भेदभाव होता है। और विरोध और संघर्ष की शुरुआत हो जाती है। जैसे श्रीलंका में यह विभाजन क्षेत्रीय और समाजिक दोनों स्तर पर मौजूद था। श्रीलंका में बंटवारा देता है। भारत में सामाजिक विविधता कई रूपों में है भाषा, क्षेत्र, संस्कृत, धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भारत में सामाजिक विभाजन है।

 

★ सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पत्ति
व्यक्तियों को समुदाया जाति का चुनाव करना उनके वश की बात नहीं है जन्म के कारण ही कोई व्यक्ति किसी समुदाय का सदस्य हो जाता है। दलित परिवार में जन्म लेने वाला बच्चा उस समुदाय का स्वाभाविक सदस्य हो जाते हैं। स्त्री पुरुष ,काला गोरा आदि जन्म का परिणाम है। इस तरह के विभाजन जन्म आधारित सामाजिक विभाजन है।
परंतु सभी विभाजन जन्म आधारित नहीं होते हैं कुछ हम अपनी इच्छा से चुनते हैं जैसे कई व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करता है यह भी व्यक्ति के इच्छा पर निर्भर करता है कि एक ही परिवार के सदस्य अपनी इच्छा से पेशा चुन सकता है एक ही परिवार के कई लोग किसान, सरकारी सेवक, व्यापारी, वकील आदि पेशा अपनाते हैं फलतः उनका समुदाय अलग हो जाता है।

 

★ सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में अंतर
कोई आवश्यक नहीं है कि सभी सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन का आधार होता है संभव हो भिन्न समुदायों के विचार भिन्न हो सकते हैं परंतु हित सामान होगा उदाहरण के लिए मुंबई में मराठों के हिंसा का शिकार व्यक्तियां की जातियां भिन्न थी धर्म भिन्न होंगे लिंग भिन्न हो सकता है परंतु उसका क्षेत्र एक ही था उनका हित समान था इस कारण सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं ले पाता
☞ सामाजिक विभाजन में जाति, धर्म और लिंग विभेद के स्वरूप
☞︎︎︎ राजनीति में इनके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू की महत्ता है जाति व्यवस्था राजनीति में कई तरह की भूमिका निभाती है। एक तरफ वंचित्र और कमजोर समुदायों के लिए अपनी बातें आगें बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगने की गुंजाईश भी पैदा करती है इस अर्थ में जातिगत राजनीति और पिछले जातियों के लोगों के लिए सत्ता तक पहुंचने तथा निर्णय प्रक्रिया को बेहतर ढंग से प्रभावित करने की स्थिति भी पैदा की है।

 

★ जातिगत असमानताएं
दुनिया भर के सभी समाज में सामाजिक असमानताएं और श्रम विभाजन पर आधारित समुदाय विद्यमान है भारत इस से अछूत नहीं है भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा का आधार वंशानुगत है पेशा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्वयं चला आता है पेशा पर आधारित समुदायिक व्यवस्था ही जाति कहलाती है।

 

★ वर्ण व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था जातिगत समुदाय का बड़ा वर्ण है। वर्ण में कई जातियां समाहित है। वर्ण व्यवस्था जाति समूहों का पदानुक्रम व्यवस्था है।
☞ औसत आर्थिक हैसियत का संबंध वर्ण व्यवस्था से गहरा है ऊंची जाति की स्थिति सबसे अच्छी है दलित और आदिवासियों की स्थिति बेकार है। पिछड़ी जातियों की स्थिति मध्य दर्ज का है।
☞ हर जातियों में अमीर गरीब है परंतु नीचली जातियों तथा आदिवासियों में ज्यादा आप बड़ी संख्या में गरीबी है दलितों में महादलितों की स्थिति तो और भी दयनीय है अर्थात गरीब रेखा (प्रति व्यक्ति प्रति माह ₹327) (ग्रामीण ) 455 रुपए शहरी से कम खर्च करने वाले (लोग) से नीचे बसर करने वाले अधिकाधिक लोग दलितों एवं आदिवासियों में है अमीरों की अधिक संख्या ऊंची जातिय समुदाय में है

 

★ राजनीतिक में जाति
☞ निर्वाचन के वक्त पार्टी अभ्यर्थी तय करते समय जातिय समीकरण का ध्यान जरूर करती है। चुनाव क्षेत्र में जिस जाति विशेष की मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक होती है पार्टियां उस जाति के हिसाब से अभ्यर्थी तय करती है ताकि उन्हें चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट मिल जाए सरकार गठन के समय भी जातीय समीकरण को ध्यान में रखा जाता है इस बात का ख्याल क्या जाता है ताकि विभिन्न जातियों और कबील लोगों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए
☞ दलित और निचली जातियों का भी महत्व निर्वाचन के वक्त बढ़ जाता है उच्च वर्ग या जाति के उम्मीदवार भी नीची जातियों के सम्मुख नम्र भावना से जाते हैं और उनके मन हासिल करने हेतु अनुनय विनय करते हैं इन अफसरों पर नीची जाति में आत्म गौरव जागृत होता है और स्वाभिमान जगता है इन जातियों में राजनैतिक चेतना के सुअवसर प्राप्त होते हैं।

 

★ चुनाव की जातीयता में ह्नास की प्रवृत्ति
☞ किसी भी निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया जाता है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदाता रहे ऐसा हो सकता है कि एक जाति मतदाता की संख्या अधिक हो सकती है परंतु दूसरे जाति के मतदाता भी निर्णायक भूमिका निभाती है। अतः हर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा हासिल करना चाहता है।
☞ यह भी कहना ठीक नहीं होगा कि कोई पार्टी विशेष केवल एक ही जाति का वोट हासिल कर सत्ता में आता है। जब लोग किसी जाति विशेष को किसी एक पार्टी का वोट बैंक कहते हैं। तो इनका मतलब यह होता है कि उस जाति के ज्यादातर लोग उसी पार्टी को वोट देते हैं।

 

★धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा
हमारे संविधान निर्माताओं को संप्रदायिकता के इस चेहरा की परिकल्पना पहले से भारत में शासन का धर्म निरपेक्ष मॉडल चुनना गया और हमारा देश धर्मनिरपेक्ष देश बना हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु उनका उपबंध किये गए
☞ हमारे देश में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंग्लैंड में ईसाई धर्म का जो दर्जा दिया गया है उनके विपरीत भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता है।

 

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